उपनयन संस्कार : जनेऊ /यज्ञोपवीत
यह सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है, जिसमें, बालक को, जनेऊ धारण कराया जाता है। उपनयन विवाह पूर्व का संस्कार नहीं होता। यह विद्या और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने योग्य बनाने वाला संस्कार है। इसीलिए प्राय: बाल्यावस्था (५ वर्ष) की. समाप्ति के बाद यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने की प्रक्रिया पूरी की जाती है। यह स्नातक बनने की प्रक्रिया है। उचित समय पुर जिनका उपनयन नहीं होता उन्हें विवाह से पूर्व जनेऊ पहनाया जाता है।
प्रायः जनेऊ संस्कार प्रात: काल में ही किया जाता है। प्राय: दो बालकों का एक साथ यज्ञोपवीत होना चाहिए
तैयारी
हवन की सामग्री
बालक के साथ माँ, बापू व घर के सब लोग आसन पर बैठते हैं। उपाध्याय जी जनेऊ का संस्कार कराते हैं। जनेऊ के पश्चात् बहन बुआ आरता करती है। छात- नेबगी, को दी जाती है। * माँ बालक की वाराफेरी करती है। बालक की माँ घर की सब बड़ी महिलाओं को पाँव लगनी देती है। बालक सब घर वालों के पास जाकर 'भिक्षांदेहि कुहूकर भिक्षा माँगता है।घर के सब लोग बालक की थैली में एक-एक मुट्ठी मेवा भिक्षा स्वरूप देते हैं। पक्की रसोई (पूरी आदि) बनती है। भोजन में से पूर्वजों के नाम का छूता निकाला जाता है। पहले पुण्डित जी को जिमाते हैं, फिर घर वाले, भोजन करते हैं। नोटू- यदि बालुक् नियमानुसार जेनऊ धारण करता है. तो रोज की दिनचर्या में उसे कुछ विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है।
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